
Sikandar review
सलमान खान अब एक्टिंग में बिल्कुल भी मेहनत नहीं कर रहे। बजरंगी भाईजान के बाद से हर डायरेक्टर उनकी कमियों को छुपाने और बस किसी तरह उनकी स्टार पावर को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है। उनके फैंस के लिए ये देखना आसान नहीं होगा—एक समय का सुपरस्टार अब थका हुआ, बेपरवाह और अपनी ही दुनिया में मस्त नजर आता है।
यह बात सिर्फ सिकंदर के लिए नहीं, बल्कि उनकी पिछली तीन फिल्मों—राधे, किसी का भाई किसी की जान और टाइगर 3—के लिए भी सही है। आप कह सकते हैं कि बार-बार यही बातें दोहराना आलस है, लेकिन जब सलमान खुद मेहनत नहीं कर रहे, तो उनकी फिल्मों के रिव्यू में क्यों मेहनत की जाए?
फिल्म की कहानी – वही घिसा-पिटा मसाला
फिल्म की शुरुआत में सलमान का किरदार संजय राजकोट एक फ्लाइट में एक नेता के बिगड़ैल बेटे की पिटाई कर देता है, क्योंकि वो एक लड़की को परेशान कर रहा होता है। फिर पता चलता है कि संजय और उसकी पत्नी सैश्री (रश्मिका मंदाना) राजकोट के राजा-महाराजा टाइप लोग हैं—लोगों के लिए मसीहा, हमेशा भलाई करने वाले। संजय को सिकंदर भी कहा जाता है, लेकिन क्यों? बस ऐसे ही, क्योंकि बड़े नाम रखने से किरदार दमदार नहीं बन जाते, ये शायद मेकर्स भूल गए।
सिकंदर के पास अपनी खुद की सेना भी है, लेकिन उसे उनकी जरूरत नहीं पड़ती। अकेले ही दर्जनों गुंडों को धूल चटा देता है।
कहानी से ज्यादा कमजोर है निर्देशन
फिल्म के डायरेक्टर ए.आर. मुरुगदॉस (जो गजनी बना चुके हैं) और राइटर्स ने जैसे किसी भी चीज पर ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं समझी।
एक सीन में सिकंदर का एक आदमी आकर कहता है कि उसने कुछ हथियार बेचे थे, जो पंजाब में एक आतंकी हमले में इस्तेमाल हुए। सुनकर लगता है कि इससे कहानी में कुछ बड़ा होने वाला है, लेकिन नहीं! ये बस एक बहाना है सलमान को एक खदान में फाइट करवाने के लिए। और इस फाइट का भी कोई खास लॉजिक नहीं, बस एक दुर्घटना होनी थी, तो हो गई!
रश्मिका मंदाना का रोल बस फॉरशैडोइंग करने के लिए है। मतलब, बार-बार इशारा दिया जाता है कि कुछ बुरा होने वाला है, लेकिन इसे इतना ओवरडोज कर दिया गया कि कहानी दिलचस्प बनने के बजाय बोरिंग लगने लगती है।
सलमान की ‘भलाई करने वाला’ इमेज अब ओवरडोज हो चुकी है
फिल्म मुंबई शिफ्ट होती है और सिकंदर अपनी पत्नी के दान किए गए अंगों के लोगों को ढूंढने निकलता है। अब कौन ऐसा करता है? लेकिन चूंकि सलमान को “इंसानियत का मसीहा” दिखाना है, तो यह भी सह लो।
बीच-बीच में कुछ फाइट सीन भी हैं, लेकिन उनमें भी सलमान पूरी तरह सुस्त नजर आते हैं। टाइगर 3 में भी यही दिखा कि अब इंडियन एक्शन सिनेमा सलमान को काफी पीछे छोड़ चुका है।
सलमान का दौर खत्म?
मुरुगदॉस ने गजनी जैसी ब्लॉकबस्टर दी थी, लेकिन सिकंदर में उनकी स्टोरीटेलिंग बेकार नजर आती है। फिल्म में साउथ इंडियन फिल्मों वाली भव्यता लाने की कोशिश की गई है, लेकिन यह सिर्फ खराब डायलॉग्स और जबरदस्ती के इमोशन्स में फंसकर रह गई।
सच कहूं तो, सलमान का दौर अब खत्म हो चुका है!
- सुल्तान को आए 9 साल हो गए, जो उनकी आखिरी अच्छी फिल्म थी।
- भारत भी 6 साल पहले आई थी, जिसे कम से कम झेला जा सकता था।
थिएटर में मैंने कुछ सलमान फैंस को देखा, जो अपने स्टार को चीयर करने आए थे। लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, उनका जोश ठंडा पड़ गया।
फिल्म के क्लाइमैक्स में जब सलमान दर्द भरी आवाज़ में गाते हैं—“अजीब दास्तान है ये, कहां शुरू कहां खत्म”, तो यही सवाल उनके करियर पर भी उठता है।
1988 में ये सफर शुरू हुआ था। अब इसे खत्म हो जाना चाहिए। अब और ‘दास्तान-ए-सलमान’ नहीं झेली जाती!
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